आखिर सभ्यता के इस विकास के समयानुक्रम में आदमी ने किसी एक समय-बिन्दु पर आग, पत्थर, पहिया, लोहा, धातु, जानवर, गुफ़ा, जंगल, झोपड़ी, कपड़ा, कागज, बारूद, हथियार, बिजली, कंप्यूटर आदि का पहली बार प्रयोग किया होगा। इस प्रथम प्रयोग के बाद ही इसका प्रसार और परिष्कार होता गया होगा और ये साधन हमारे जीवन के अविभाज्य अंग बनते गये होंगे। जो हमारी सभ्यता को उत्कृष्टता की ओर ले जाने में उपयोगी हुआ उसका हमने वरण कर लिया, आत्मसात कर लिया और उसे सर्वसुलभ बनाने की कोशिश की। जो काम लायक नहीं रहा वह इतिहास में पीछे छूट गया। ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ का सिद्धान्त भी कमोबेश यही कुछ कहता है।
साहित्य के क्षेत्र में भी तकनीक और साधन ने युगान्तकारी परिवर्तन किये हैं। लेखनी के प्रयोग से पहले स्रुति-परम्परा फिर हस्तलेखन हेतु भोजपत्र, कागज, पाण्डुलिपि फिर छपाई-मशीन, पुस्तकों और अखबारों का प्रकाशन, कम्प्यूटर और इण्टरनेट के क्रमिक विकास ने साहित्य के सृजन, अध्ययन-अध्यापन व आस्वादन की रीति को लगातार बदला है। ‘साहित्य’ को एक नियत कालखण्ड में एक विशेष माध्यम से रचे और पढ़े गये शब्द समुच्चय तक सीमित कर देना किसी विडम्बना की ओर इशारा करता है।
मेरे एक मित्र ने मजाक में कहा था कि ब्लॉगिंग का चस्का कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा नाई को देखकर हजामत बढ़ आने की कहावत में होता है। मतलब इन्टरनेट की सैर करते-करते भाई लोग मुफ़्त में कवि और लेखक बन जाने और प्रत्यक्ष रूप से पाठकों की दाद पा जाने का अवसर हाथ लगने पर झम्म से साहित्य की दुनिया में कूद पड़ते हैं।
वैसे देखा जाय तो इस बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। इस सर्वसुलभ साधन का अकुशल प्रयोग करने वालों के होते हुए भी इसके प्रसार और प्रभाव को अब रोका नहीं जा सकता है। और न ही दोयम दर्जा देकर इसके उत्साह को कम किया जा सकता है।
तुलसीदास ने अपनी अमर रचना किसी समालोचक या मूर्धन्य विद्वान को लक्ष्य करके उसकी ‘रिकॉग्नीशन ’ पाने के लिए नहीं लिखी थी, बल्कि स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा का भाव ही प्रधान था।
गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी अमर रचना किसी समालोचक या मूर्धन्य विद्वान को लक्ष्य करके उसकी ‘रिकॉग्नीशन ’ पाने के लिए नहीं लिखी थी, बल्कि स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा का भाव ही प्रधान था। लेकिन उनके शब्दों में भाव और लालित्य की वह अविरल धारा फूट निकली कि सारे साहित्यकार पीछे छूट गये।मैने अनुभव किया है कि ब्लॉग के दरवाजे से अनेक ऐसे हस्ताक्षर भी निकलकर सामने आ रहे हैं जो संकोच में शायद किसी अन्य दरवाजे को खटखटाना भी गँवारा नहीं करते। जबकि उनकी लेखनी में नगीना जड़ा हुआ है।
जंगल में मोर नाचा किसने देखा? होंगे ऐसे मूर्धन्य साहित्यकार किसी विलक्षण रचना के मालिक। लेकिन पढ़ेंगे तो हम वही जो हमारे करीब आयेगा। भौतिक रूप से भी और भाव रूप में भी। प्यासे और कुएं की कहावत अब बेमानी हो गयी लगती है। अबतो घर-घर ‘वाटर-सप्लाई’ की व्यवस्था पर जोर है। ज्यादातर कुएं तो अब केवल मांगलिक कार्यों में पूजा के काम आने लगे हैं। उनका पानी पीने पर बीमारी फैलने का खतरा बताया जाता है।
घर में बैठकर कनाडा में इसी क्षण रचा गया साहित्य तुरंत पढ़ने और दुनिया को उसके बारे में अपनी राय बता देने का जो सुख हमें एक क्लिक करते ही मिल जा रहा है उसे कौन साहित्य चुनौती दे सकेगा?
अस्तु, हे परम्परा के पुरोधा साहित्यकार श्रीमन आइए अपने छोटे किन्तु विकासशील भाई को गले लगाइये। आपके अच्छे गुणों को यह ग्रहण कर लेगा और बदले मे यह दुआ भी करेगा कि आपकी लोकप्रियता में कोई ‘ग्रहण’ न लगने पाए।
घर में बैठकर कनाडा में इसी क्षण रचा गया साहित्य तुरंत पढ़ने और दुनिया को उसके बारे में अपनी राय बता देने का जो सुख हमें एक क्लिक करते ही मिल जा रहा है उसे कौन साहित्य चुनौती दे सकेगा?
जवाब देंहटाएं-तो ये लिजिये यह सुख,,,अभी लूट लिजिये. वाकई, कितना सच्ची सच्ची केंदे हैं भाई आप.
शहद के छत्ते को न छेड़ें श्रीमन्
जवाब देंहटाएंलेकिन शहद देख कर बिना छेडॆ रहा भी तो नही जाता जी :)
स्वान्त: सुखाय! मित्र यह ब्लॉगिंग भी स्वान्त: सुखाय ही है। शुरुआत में टिप्पणी का टेका जरूरी है, पर बाद में अगर आप अच्छा नहीं देते तो आपके मन में भी कुछ कड़वा सा लगता है। लोग भले ही बहुत सुन्दर कहते हों!
जवाब देंहटाएंइसे साहित्य की एक विधा मान लेने में
जवाब देंहटाएंझिझक एक पूर्वग्रसित दुराग्रह है । जब ईबुक, ईमैगज़ीन पनप रहे हों । यह भी आगे आयेगा ।
जो घटिया होगा वह बाद में ज्ञान को प्राप्त करेगा या
बाहर हो जायेगा, किंतु लेखन से, पाठन से वह सदैव जुड़ा ही रहेगा ।
अच्छा मुद्दा उठाया है।
जवाब देंहटाएं